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“आरोग्यपरमा लाभा, शांति परम सुखम्” स्वास्थ्य सबसे बड़ा लाभ है, संतोष सबसे बड़ा धन

Healthbhaskar.com: रायपुर,18 अगस्त 2025 आधुनिक समाज में स्वास्थ्य सेवा और स्वतंत्रता की अवधारणाएँ एक-दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई हैं। स्वास्थ्य केवल बीमारी के उपचार तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा सशक्तिकरण तंत्र है जो व्यक्ति को जीवनभर स्वायत्तता, सम्मान और आत्मनिर्णय की क्षमता प्रदान करता है। आज के वैश्विक परिवेश में, जहाँ निजता और आत्मनिर्भरता को मूलभूत अधिकार माना जाता है, स्वास्थ्य को केवल जीवित रहने की प्रक्रिया न मानकर, बल्कि स्वतंत्रता और सामाजिक समावेशन के मूल आधार के रूप में देखा जाना आवश्यक है।

स्वास्थ्य और स्वतंत्रता का गहरा रिश्ता

वृद्धावस्था या शारीरिक रूप से दिव्यांग व्यक्तियों के जीवन में स्वास्थ्य स्वतंत्रता का आधार बनता है। पुनर्वास सेवाएँ, मानसिक स्वास्थ्य सुविधाएँ, टेलीहेल्थ और सहायक तकनीकें उनकी स्वायत्तता को मजबूती देती हैं। लेकिन यदि इन तक पहुँच न हो, तो व्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित होती है और वे अनावश्यक संस्थागत देखभाल या पारिवारिक निर्भरता में फँस जाते हैं। इसलिए स्वास्थ्य सेवा केवल उपचार का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक समावेशन और समान अवसर का अधिकार है।

स्वास्थ्य की परिभाषा और भारतीय दृष्टिकोण

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) स्वास्थ्य को “पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कल्याण की स्थिति” मानता है। भारतीय संस्कृति इसे और व्यापक दृष्टि से देखती है ,जहाँ स्वास्थ्य को समग्र जीवन विकास का माध्यम माना गया है। भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्व (डीपीएसपी) भी अनुच्छेद 47, 39 (ए), 42 और 48 (ए) के माध्यम से राज्य को स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देने का निर्देश देते हैं।

पश्चिम बंगाल खेत मज़दूर समिति बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1996) मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्वास्थ्य को अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार माना गया है । इसके बावजूद भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2.1% है, जबकि WHO कम से कम 5% की अनुशंसा करता है। वहीं, भारत में स्वास्थ्य सेवा पर 47% खर्च नागरिकों की जेब से (Out-of-Pocket Expenditure) होता है।

महिलाओं और स्वास्थ्य का दृष्टिकोण

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि समाज की प्रगतिशीलता महिलाओं की वित्तीय स्वतंत्रता और प्रजनन स्वायत्तता से ही संभव है। आज महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी 2017 के 18% से बढ़कर 2023 में 41.7% तक पहुँची है। यह आँकड़े उत्साहजनक हैं, लेकिन जब तक समाज महिलाओं को केवल भूमिकाओं में नहीं, बल्कि “समान भागीदार” के रूप में स्वीकार नहीं करता, तब तक स्वस्थ भारत का सपना अधूरा रहेगा।

शिक्षा, युवा और स्वास्थ्य

एलेनोर रूजवेल्ट ने कहा था, “भविष्य उनका है जो अपने सपनों की सुंदरता में विश्वास करते हैं।” एक स्वस्थ मन ही सपनों को जन्म देता है। विद्यालय और विश्वविद्यालय यदि गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं और मानसिक कल्याण पर ध्यान दें, तो वे छात्रों के आत्मविश्वास, सीखने की क्षमता और समग्र विकास को नई दिशा दे सकते हैं।

HALYs (स्वस्थ समायोजित जीवन वर्ष), DALYs (विकलांगता समायोजित जीवन वर्ष) और QALY (गुणवत्ता समायोजित जीवन वर्ष) जैसे मानक स्वास्थ्य सेवाओं की प्रभावशीलता मापने में सहायक हैं। भारत में इन वैश्विक मानकों को स्थानीय वास्तविकताओं के अनुसार लागू करने की आवश्यकता है। 2019 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) ने “मरीजों के 17 अधिकारों का चार्टर” जारी किया। इसका उद्देश्य था—सभी नागरिकों के लिए समान स्वास्थ्य और स्वतंत्रता की गारंटी। लेकिन आर्थिक असमानता, भौगोलिक विषमताएँ और सामाजिक भेदभाव अब भी हाशिये पर खड़े समुदायों की पहुँच को सीमित करते हैं।

डॉ. अमित बंजारा ,सचिव JDA रायपुर ने हेल्थभास्कर डॉट कॉम से विशेष चर्चा में बताया की स्वास्थ्य और स्वतंत्रता का रिश्ता अविभाज्य है। समान और सुलभ स्वास्थ्य सेवा के बिना स्वतंत्रता अधूरी है। भारत को आवश्यकता है कि वह डॉ. अंबेडकर के सामाजिक न्याय के सिद्धांत, कुंजेट्स और लुईस के आर्थिक विकास मॉडल तथा महात्मा गांधी के सतत विकास दर्शन को साथ लेकर चले। तभी “आरोग्यपरमा लाभा, शांति परम सुखम्” का वास्तविक अर्थ समाज में उतर सकेगा।

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